14 अप्रैल 2015 को बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती मनाई जायेगी। वैसे तो डॉ. अंबेडकर का कद और छवि समय के साथ और बढ़ी है, लेकिन दलित सशक्तिकरण के लिए देश के सर्वोत्तम अधिवक्ता के रूप में उनकी प्रसिद्धि के पीछे कई बार उनके बहु-आयामी व्यक्तित्व के कई विशिष्ट पहलू छिप जाते है।
डॉ. अंबेडकर उत्कृष्ट अर्थशास्त्री थे और इस क्षेत्र में उनके योगदान से देश के केन्द्रीय बैंक, भारतीय रिजर्व बैंक की आधारशिला रखी गई। उन्होंने बिजली पैदा करने और सिंचाई की सुविधा के लिए देश की सबसे पहली नदी घाटी परियोजना तैयार की थी। भारतीय संविधान की ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष के रूप में वे संविधान निर्माता थे। उन्होंने महिलाओं को बड़ी संख्या में स्वाधीन बनाने के लिए हिन्दू संहिता विधेयक भी तैयार किया था और संसद द्वारा जब इस विधेयक को पास नहीं किया गया तब अंतत: उन्होंने केन्द्रीय कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था।
हालांकि डॉ. अंबेडकर ने भारत के लोगों की भिन्नता, संस्कृति और उनकी अलग-अलग अपेक्षाओं को शामिल कर राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को बढ़ाने में सबसे बड़ा योगदान दिया था लेकिन इसे कम लोग जानते हैं। उनके लिए राष्ट्र एक दार्शनिक तत्व है जिसका केन्द्रीय विषय साझा सपने है।
देश भर और विश्व के शिक्षाविद और विद्वान आधुनिक भारत राष्ट्र के निर्माता के रूप में डॉ. अंबेडकर की भूमिका को तेजी से मान्यता दे रहे हैं। डॉ. अंबेडकर ने राष्ट्र की उनकी परिकल्पना के बारे में अर्थपूर्ण ढंग से लिखा है और उनके कार्यों को उजागर करने वाली केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित 'अंबेडकर फाउंडेशन' ने डॉ. बी. आर. अंबेडकर के लेखों और भाषणों को प्रकाशित किया है। महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग ने भी उनके लेखों और भाषणों को प्रकाशित किया है।
डॉ. अंबेडकर की राष्ट्र के बारे में परिकल्पना केवल राजनैतिक या भौगोलिक नहीं है जिसमें मानचित्र और झंडे हों। वे राष्ट्र की प्रसिद्ध परिभाषा 'एक क्षेत्र में बड़ी संख्या में रहने वाले लोगों की अपनी सरकार, भाषा, परंपरा आदि हो (कैम्बरिज शब्दकोश)' को नहीं मानते थे। उनकी परिकल्पना में राष्ट्र के दार्शनिक और धार्मिक लक्ष्य होने चाहिए जिसमें कल्याण, समानता और भाईचारा केन्द्रीय विषय हों। अपनी इस परिकल्पना को समझाते समय उन्होंने फ्रांसीसी दार्शनिक अर्नेस्ट रैनन की बात को उद्धृत करते हुए कहा था कि ''एक राष्ट्र जीवित आत्मा और धार्मिक सिद्धांत है। दोनों बातें वास्तव में एक ही है, धार्मिक सिद्धांत से आत्मा का निर्माण होता है। एक अतीत है और दूसरा वर्तमान है। एक यादों की समृद्ध विरासत है और दूसरा वास्तव में एक साथ रहने की इच्छा के लिए सम्मति है, विरासत में जो आपको मिला है उस अखंडित धरोहर के संरक्षण की अभिलाषा है। राष्ट्र एक व्यक्ति के समान होता है जो अतीत के लंबे प्रयासों, त्याग और समर्पण से बनता है...... विरोचित अतीत, महान पुरुष, प्रतिष्ठा सामाजिक राजधानी बनाती है जिस पर आधारित राष्ट्रीयता की परिकल्पना की जा सकती है।''
बाबासाहेब ने अपने पूरे जीवन में राष्ट्रीयता के इस लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास किया। उस समय भारत का एक राष्ट्र के रूप में निर्माण का समय था। उन्होंने इस मुद्दे पर उस समय की महान हस्ती श्री मोहनदास करमचंद गांधी के सामने भी अपने तर्क दिए। वह महान विचार-विमर्श अब हमारी राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा है।
डॉ. अंबेडकर के योगदान का आकलन करते समय उपमहाद्वीप के लिए उनकी दार्शनिक और धार्मिक मानसिकता को ध्यान में रखना चाहिए। 'जाति का लोप' के नाम से प्रसिद्ध अपने मौलिक लेकिन कहीं भी नहीं दिए गए भाषण में उन्होंने कहा था कि एक मजबूत राष्ट्र के लिए अवर्ण समाज पहली आवश्यकता है। इसको ध्यान में रखते हुए उन्होंने सार्वजनिक तालाब से पानी पीने के समान अधिकार के लिए 'महद सत्याग्रह', मंदिर में प्रवेश अधिकार आंदोलन और मनुस्मृति को जलाने के आंदोलन जैसे कई सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व किया था। उन्होंने आगाह किया था कि सामाजिक और आर्थिक समानता के बिना हमारा राष्ट्र अस्तित्ववाद संबंधी समस्या का सामना कर सकता है। ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष के तौर पर संविधान सभा में वाद-विवाद को समाप्त करते हुए बाबासाहेब ने कहा था कि ''26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करेंगे। राजनीति में समानता होगी तथा सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में हम 'एक व्यक्ति एक मत' और 'एक मत एक आदर्श' के सिद्धांत को मान्यता देंगे। हमारी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक आदर्श के सिद्धांत को नकारेंगे। कब तक हम इन अंतर्विरोधों का जीवन जिएंगे? कब तक हम हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर लंबे समय तक ऐसा किया गया तो हम अपने राजनैतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल देंगे। हमें जल्द से जल्द इस अंतर्विरोध को समाप्त करना चाहिए वरना असमानता से पीड़ित लोग उस राजनैतिक लोकतंत्र की संरचना को ध्वस्त कर देंगे जिसे सभा ने बड़ी कठिनाई से तैयार किया है।''
इन अंतर्विरोधों को समाप्त करने के लिए डॉ. अंबेडकर ने समाज के वंचित वर्गों और महिलाओं के लिए सकारात्मक कार्यों की परिकल्पना को बढ़ावा देने के लिए कड़े प्रयास किए। उनका दृढ़ विश्वास था कि बिना समानता और भाईचारे के अक्षुण स्वाधीनता नहीं हो सकती।
उन्होंने कहा ''कैसे कई हजारों जातियों में विभाजित लोगों का एक राष्ट्र हो सकता है।''
भारतीय संविधान के संस्थापक भी बाबासाहेब के दलित वर्गों के लिए आरक्षण की आवश्यकता के विचार से सहमत थे। अगर हम संविधान सभा की बहस को जांचे तो पाएंगे कि उसमें समान अधिकारों और सकारात्मक गतिविधियों के मुद्दे पर कोई अंतर्विरोध नहीं था। बाबासाहेब द्वारा तैयार किए गए हिन्दू संहिता विधेयक के मामले में परिवार में महिलाओं के लिए समान अधिकार पर उनके विचार को बाद में संसद में भी समर्थन दिया गया। हालांकि शुरूआती चरण में इस विधेयक का विरोध किया गया था और इसे भांपते हुए बाबासाहेब ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। इस बारे में बाबासाहेब ने कहा था ''मैं समुदाय की प्रगति महिलाओं द्वारा हासिल की गई प्रगति की स्थिति से आंकता हूं।'' जैसा कि अर्नेस्ट रैनन ने बिल्कुल सही कहा था कि एक राष्ट्र को अतीत की बुरी यादों को भूल जाना चाहिए और भविष्य के सहभागी सपनों को साकार करना चाहिए और भारत की संविधान सभा ने सामाजिक समानता और भाईचारे की इस परीक्षा में बड़ी कुशलता से सफलता हासिल की है। भारत के महान पुत्र बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को हम हमारी विरासत के रूप में याद करते है। आओ, इस वर्ष हम महान राष्ट्र भारत के लिए बाबासाहेब के सपने का स्मरण करें।
* श्री दिलीप मंडल, इंडिया टुडे ग्रुप के पूर्व प्रबंध संपादक और सीएनबीसी आवाज़ के कार्यकारी संपादक है। (यह लेखक के निजी विचार है)
Courtesy: pib.nic.in
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